Bhopal News : सखाराम बाइंडर विश्व प्रसिद्ध लेखक विजय तेंदुलकर द्वारा लिखा गया नाटक है, इसका पहली बार 1972 में मंचन किया गया था, कमोवेश उसी वर्ष यह नाटक छपा भी था, तब से यह भारतीय रंगमंच में एक ऐतिहासिक नाटक बन गया है। नाटक में दिखाया गया कि पेशे से बाइंडर सखाराम राजा की तरह रहता है। समाज से ठुकराई हुई महिलाओं को वह अपनी शर्तों पर घर लेकर आता है लेकिन उसकी मर्जी के अनुसार न रहने पर वह उनको त्याग देता है। यही आजादी उसने महिलाओं को भी दी है। इसी तरह वह सातवीं महिला लक्ष्मी को घर लाता है, जिसका पति रोज उसके साथ मारपीट करता था।
संवाद की बानगी देखिये ”मैं सखाराम बाइंडर हूं, दारू पीता हूं, लड़कीबाजी करता हूं, वो भी डंके की चोट पर। मेरे लिए घर से निकाली हुई औरत की कोई इज्जत नहीं लेकिन उनको अपने घर पर रखता हूं वो भी अपनी शर्तों पर। समझ आए तो रहो वरना बाहर का रास्ता नापो…।” सभ्य समाज को बेनकाब करने वाला नाटक सखाराम बाइंडर में सखाराम बाइंडर ने घर त्यागने की आजादी महिलाओं को भी दी है। इसी तरह वह सातवीं महिला लक्ष्मी को घर लाता है, जिसका पति रोज उसके साथ मारपीट करता था। वक्त के साथ लक्ष्मी को सखाराम से लगाव हो जाता है लेकिन किसी बंधन में न बंधने की वजह से सखाराम उसे भी छोड़ देता है। इसके बाद उसके जीवन में आठवीं स्त्री के रूप में चंपा का आगमन होता है। चंपा अपने शराबी पति को छोड़कर उसके साथ रहने आई है। सखाराम की शर्तों से परे वह उसके घर में अपने अलग अंदाज़ के हिसाब से रहती है। इस दौरान लक्ष्मी दोबारा आसरे की तलाश में सखाराम के पास वापस आ जाती है और दासी की तरह उसके साथ रहने लगती है। नाटक में मोड़ तब आता है जब चंपा को सखाराम के दोस्त दाऊद से लगाव हो जाता है। लक्ष्मी सखाराम को चंपा और दाऊद के रिलेशन के बारे में सच बता देती है। धोखे की वजह से चोट खाया हुआ सखाराम चंपा को जान से मार देता है।
– निर्देशकीय –
नायक सखाराम बाइंडर सोचता है कि उसने व्यवस्था को अपने नियंत्रण में कर रखा है और जब तक वह सच्चा है, वह संस्कृति और सामाजिक मूल्यों की अवहेलना कर सकता है। यह व्यवस्था लोकतंत्र और आधुनिकता के वादों के बावजूद उत्तर औपनिवेशिक भारत में महिलाओं की वास्तविक गुलामी है। सखाराम, एक बुकबाइंडर, दूसरे पुरुषों की त्यागी हुई महिलाओं को अपने घर ला कर रखता है – ऐसी पत्नियाँ जो अन्यथा बेघर, बेसहारा या बेखौफ हत्या की शिकार होतीं, और उन्हें घरेलू नौकरों और यौन साझेदारों के रूप में अपने साथ ले जाता है। वह अपने घर पर एक तानाशाह की तरह शासन करता है, फिर भी हर महिला से कहा जाता है कि वह जब चाहे तब घर से बाहर जा सकती है। वह उसे एक साड़ी, रुपये और जहाँ भी वह जाना चाहे वहाँ का टिकट भी देगा । वह कहता है कि सखाराम बाइंडर के मामले में सब कुछ ठीक और उचित है । वह कोई पति नहीं है जो सामान्य शिष्टाचार को भूल जाए। वह इस व्यवस्था की नैतिक और भावनात्मक जटिलताओं का अनुमान नहीं लगाता है, जो इसमें शामिल सभी लोगों के लिए दिल तोड़ने वाली विनाशकारी साबित होती हैं।नाटक ने रंगमंच पर दांपत्य जीवन की गोपनीय नैतिकता का साहसपूर्ण ढंग से पर्दाफाश किया है। ‘सखाराम बाइंडर’ को इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि वह गलाजत से भरी दिखावटी संभ्रांतता को पहली बार इतने सक्षम ढंग से चुनौती देता है। रटे-रटाये मूल्यों को सखाराम ही नहीं इस नाटक के सारे पात्र अपनी पात्रता की खोज में ध्वस्त करते चले जाते हैं। जिन नकली मूल्यों को हम अपने ऊपर आडम्बर की तरह थोप कर चिकने-चुपड़े बने रहना चाहते है, उसे सही -सही नाटक के इस आइने में निर्ममता से उघडता हुआ देखते हैं। ‘सखाराम बाइंडर’ वही आइना है। भाषा के स्तर पर सारे पात्र बड़ी खुली और ऐसी आम लोगों की संयुक्त भाषा का प्रयोग करते हैं जिन्हें हमने अकेले-दुकेले सड़क या बाज़ार में कभी सुना जरुर होगा । किन्तु उसे अपने संस्कारिता का अंश मानने में सदैव कतराते रहे हैं। पूरे नाटक में कथा वस्तु की विलक्षणता न होते हुए भी पात्रों का आपस में वैचारिक उपस्थिति दिखाई देती है ।
यह नाटक सखाराम की कहानी बताता है, जो एक ऐसे व्यक्ति है जो विवाह से बाहर महिलाओं के साथ यौन संबंध बनाकर और उनके साथ खुलेआम रहकर पारंपरिक सामाजिक मानदंडों को चुनौती देता है। सखाराम की कहानी के माध्यम से तेंदुलकर शक्ति, नियंत्रण और नैतिकता के विषयों की खोज करते हैं। चार दशक से भी ज़्यादा पहले लिखे जाने के बावजूद, सखाराम बाइंडर आज भी कई कारणों से प्रासंगिक है। सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह नाटक पारंपरिक पितृसत्तात्मक संरचनाओं को चुनौती देता है जो आज भी दुनिया भर के कई समाजों पर हावी हैं। सखाराम एक जटिल किरदार है जो अपने समाज के मानदंडों को तोड़ता है और उन महिलाओं के साथ संबंध बनाता है जिन्हें ‘ क्षतिग्रस्त सामान ‘ माना जाता है क्योंकि वे विधवा या तलाकशुदा हैं। सामाजिक अपेक्षाओं के अनुरूप न होने के कारण सखाराम अपने समुदाय के साथ मतभेद में आ जाता है और उसे उपहास और हिंसा का लक्ष्य बनाता है। यह नाटक उस समाज की नैतिकता पर सवाल उठाता है जो महिलाओं को उनके यौन विकल्पों के लिए कलंकित और बहिष्कृत करता है जबकि सखाराम जैसे पुरुषों को दंड से मुक्त होने की अनुमति देता है।
मंच पर—
सखाराम– अनूप शर्मा
दाऊद –आधार नामदेव
लक्ष्मी — अनु अहिरवार
चंपा –अनुष्का शांडिल्य
चंपा का आदमी- विभांशु खरे
मंच के पीछे–
मंच व्यवस्था- निलेश रंजन
प्रोडक्शन कंट्रोलर वेदांग शर्मा
मंच परिकल्पना- प्रणव शर्मा
मंच निर्माण- देवेंद्र शर्मा, घनश्याम, अभिषेक, शत्रु संगीत एवं साउंड कलेक्शन
पीयूष सैनी
ध्वनि व्यवस्था- विनोद प्रजापति, मुनीष मौर्य
संगीत संचालन- विशाल
प्रकाश परिकल्पना- पीयूष सैनी
प्रकाश सहायक- महेंद्र मिश्रा, घनश्याम, शत्रु
रूप सजा – महिमाशर्मा ,अनु अहिरवार
वेशभूषा पोस्टर एवं ब्रोशर डिजाइन – आनंद
उद्घोषणा- आरती विश्वकर्मा
लेखक विजय तेंदुलकर निर्देशन एवं परिकल्पना दिनेश नायर
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