Singrauli News : बैढन, सामुदायिक भवन में चल रही दिव्य आध्यात्मिक प्रवचन श्रृंखला के नवमें दिन जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज की प्रमुख सुश्री प्रचारिका सुश्री धामेश्वरी देवी जी ने बताया कि वेदों में कहा गया है कि भगवान की प्राप्ति वास्तविक गुरु की शरणागति से ही हो सकती है। वेदों में कहा गया है-
तब्दिध्दि प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः।।
अर्थात् ईश्वरीय विषय के तत्व ज्ञान के लिए श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष की आवश्यकता है।
रामायण कहती है- ‘गुरू बिनु भव निधि तरइ न कोई’ गुरु शास्त्र वेद का पूर्ण ज्ञाता भी हो और जिसने ईश्वर साक्षात्कार भी किया हो। वेदों-शास्त्रों में तो यहां तक कहा गया है कि गुरु और भगवान अलग न होकर एक ही तत्व है।
भागवत में कहा गया है- ‘‘आचार्यं मां विजानयान‘‘।
भगवान अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! तू मुझे ही गुरु मान। अतः हरि और गुरु की शरणागति उनके प्रति पूर्ण समर्पण से ही हमारा काम बनेगा।
ज्ञानमार्गी से भक्तिमार्गी श्रेष्ठ है क्योंकि ज्ञानमार्गी का पतन हो जाता है क्योंकि ज्ञानी को अपने ज्ञान का मिथ्या अभिमान होता है बल्कि भक्त अपने आप को दीन हीन, पतित मानता है तो उस पर दीनानाथ भगवान की कृपा जल्दी हो जाती है। ज्ञानी अपने बल पर चलता है जबकि भक्त भगवान के बल पर आश्रित होता है। इसलिए भक्त का पतन नहीं होता क्योंकि वहाँ पर गुरु उसका योगक्षेम वहन करता है। भगवान ने गीता में कहा है कि ‘मामेव ये प्रपद्यन्ते, मायामेतां तरन्ति ते’ अर्थात् भगवान के पूर्ण शरणागत होने पर ही माया से पार हो सकते हैं। इस प्रकार ज्ञान मार्ग को बहुत कठिन और भक्ति मार्ग को अत्यंत सरल बताया गया है।
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